विशिष्ट पोस्ट

Filimiya bhukhar

  फ़िलमियां बुख़ार  फ़िलमियां बुख़ार का पूरा दारोमदार अगर छम्मो  बुआ पर डाल दिया जाय तो कोई न - नुकुर करने वाला नहीं।सोते-जगते,उठते-बैठते उन...

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

Filimiya bhukhar

  फ़िलमियां बुख़ार 

फ़िलमियां बुख़ार का पूरा दारोमदार अगर छम्मो  बुआ पर डाल दिया जाय तो कोई न - नुकुर करने वाला नहीं।सोते-जगते,उठते-बैठते उनके सर पर फ़िल्मी भूत सवार रहता।जो सोहबत में आता अछूता न रहता।छत पर किताब लिए घूम-घूम कर पढ़ते समय भी मरफ़ी रेडियो पर आ रहे विविध-भारती से बढ़िया फ़िल्मी गानों का आनंद लेते रहना,मतलब एक पंथ दो काज,उस समय के पढ़ाकुओं की अतिरिक्त खूबियों में बखूबी शुमार था।छम्मो बुआ इसमें पारंगत थीं। 
मुझमें इसके कीटाणु विरासत में मौज़ूद कब पाए गए,ख़बर नहीं। साथ ही आए दिन घर में साहित्यक और चुनिंदा गाँव के जीवन पर आधारित चलचित्रों पर होने वाली चर्चाओं,विवेचनाओं और आलोचनाओं में बढ़-चढ़कर भाग लेने से,और अपने मनपसंद हीरो-हीरोइन को टॉप पर रखने के लिए अड़ियल टट्टू की तरह अड़े रहने से  हम दोनों अपने को सिनेमा-एक्सपर्ट समझने लगे थे। उस पर माधुरी,धर्मयुग एवं साप्ताहिक-हिदुस्तान जैसी पत्रिकाओं ने सोने पर सुहागे का काम किया। लगा-लपेट में  मेरे सरल फ़िलमियां मन को गाँव की सादगी और सुंदरता भा गई।चाहे वह " मदर इंडिया " की नरगिस का - गाड़ीवाले,गाड़ी धीरे हाँक रे---- या " तीसरी कसम " की वहीदा का - लाली-लाली डुलिया में ---- वाला गीत हो।मेरे भोले मानसपटल पर छाए रहते। इन गीतों के मिस गँवई सौंधी मिट्टी की गंध सा मौलिक सपन-संसार, रचता-बसता चला गया इस दिल में। उस पर हरिऔधजी की अमर पंक्तियाँ " अहा ! ग्राम्यजीवन भी क्या है----। " ने उस पर मौलिकता की मुहर लगा दी। इधर चमकी मौसी ने चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज़ पर गाँव का दूल्हा खोजगर्मियों में  ब्याह दी।रस्मोरिवाज पूरे हुए। मुहूरत देख विदा हुई।कार से गाँव की सीमा तक पहुँचा दी गई।पता चला कि अब थोड़ी दूर तक सगुन के लिए पालकी में बैठकर जाना होगा।पालकी ! सामने रंग-बिरंगी झालर वाली पालकी देख मेरा फ़िल्मी मन डोल उठा। सारे 'डोली' सीन आँखों के सामने आने लगे। मुझे डोली में मीना,नरगिस,शर्मीला,राखी और वहीदा दिखने लगीं।
मुदित-मन खोई सी,थोड़ा सा डरी सी  बैठ गई डोली में। सब कुछ ठीक था। मैं गरमी की भरी दोपहरी मैं भी सिहर रही थी । सहसा तूफ़ान सा आया जब कहारों ने झटके से कन्धों पर डोली को उठाया। उठाया क्या उछाल सा दिया।  डोली हिचकोले लेती हुई हवा में, और मैं ! दिल थामे डोली के भीतर। पल भर को तो  मेरी जान ही निकल गई। इन्हें ये भी नहीं लगा कि अंदर कोई बेजान वस्तु नहीं बल्कि जीती-जागती जान है। पहली बार बैठी थी पालकी में भई, कोई अनुभव तो था नहीं। अब किसी तरह से पालकी के दोनों तरफ़ के डंडे पकड़ कर संतुलन बनाए रखने की कोशिश में लग गई।मेरा फ़िल्मी जिया आहत हुआ।मुझे कुछ समझ न आया। सिनेमा और सच में  फासला सा दिखने लगा। पर मैंने  हिम्मत न हारी।

 देवी के मंदिर तक पालकी आ गई। " बस अब सगुन की डोली हो गई। ", ये अमृत सरीखे शब्द सुनकर में बल्लियों उछलने लगी। जान बची। फिर पीछे से कोई बोला कि बैलगाड़ी तैयार है ! बैलगाड़ी ! फ़िलमियां जिगर धड़का, आँखों में चमक, दिल औ दिमाग़ पर सारे सिनेमाई बैलगाड़ियों वाले दृश्य एक -एक कर आने लगे - नरगिस-सुनीलदत्त ! वहीदा ! बैलगाड़ी में बैठी ! राजकपूर गाड़ी, हाँक रहा है। पीछे-पीछे गाँव के छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ ' लाली-लाली डुलिया में लाली सी दुल्हनिया--- गाते चल रहे हैं।' कितना मनोहर सीन ! 

विचारों को ठोकर लगी जब किसी मर्दानी आवाज़ ने गाड़ी में बैठने की गुज़ारिश की। मैं खुशी-खुशी गाड़ी पर चढ़ने लगी, बैल हिल-डुल रहे थे इसलिए बैलगाड़ी भी हिल रही थी,सो हिलती-डुलती गाड़ी पर जैसे-तैसे चढ़ पाई।गाड़ी मैं गद्दे और मोटी  खेस तो बिछी थी मगर बैलों की तेज़ चाल होने पर वह एक जगह सिमटकर लड्डू बन जाती।धूप  से बचाव  के लिए सरकंडे पर धोती बांधकर गोलाकार छतरी
बनाई  गई थी,जो गर्म हवा में पताका सी उड़ रही थी । किधर की छाया ! धूप तमंचा - तमाचे मारने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। 
ऐसे में मेरी हालत-बेहालत हुई जा रही थी। मेरे फिल्मी हौसले पस्त होते नज़र आ रहे थे।अरे वहीदा ! कैसे तुम इतनी फ्रेश, सजी-धजी  और मुसकराती ,ज़रा सा भी मेकअप न बिगाड़े गंतव्य तक पहुँच गईं। और एक मैं यहाँ पर जूझ रही हूँ। एक तो भीषण गरमी,ऐसे में न  पंखा न छाया , उस पर मन भर भारी चटक नारंगी बनारसी साड़ी, बटुआ,चादर, फिर मुँह पर हाथ भर लम्बा घूँघट,नथनी,बेंदा,हसली - हार, कँगन,पायल ----। 
थोड़ी देर में खेतों के किनारे एक पुरानी सी इमारत दिखी।बच्चों के शोर से अंदाज़ा  लगाया जा सकता था की कोई प्राइमरी पाठशाला होगी । बैलगाड़ी में दुल्हन देख यहाँ भी कुछ लड़कियाँ मेरी ओर दौड़ी चली आ रही थीं । भाभी आईं  ! भाभी आईं  !  
ये खनकती आवाज़ सुनते ही मेरा फिलमियां दिल फुदकने लगा !  जबकि पर्दे और यथार्थ का सच कुछ - कुछ नहीं अब रत्ती -रत्ती, माशा -माशा समझ आने लगा था। इसलिए अबकी बार इसके पहले की ये सर चढ़ कर बोले मैंने झटका और कह डाला - बस ! अब बिलकुल बस !
तेरी कसम - तीसरी कसम ! अगर आस-पास तो क्या ख़्वाब में  भी दिखी । फिलमियां बुखार उतर चला। 

लेखिका 
अंजली त्रिपाठी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें